कहते हैं कि सुबह का भूला शाम को
लौट के जब घर आना ही है
तो फिर ? वो ....घर से बाहर
जाता ही क्यों है ?
बार -बार ये सवाल मेरे....
दिमाग से टकराता है .....
शायद उसकी आँखों में मगरमच्छी नमी होगी या…. फिर .....
उसके घर में जगह की कमी होगी ....इसीलिए
दिनभर समय बिताकर ...शाम को लौट आता है
घरवालों की जली -कटी सुनकर रात में ....
चुपचाप सो जाता है ...
जब-तक उसकी जान में जान होती है
ये क्रम अनवरत चलता रहता है
जिस दिन से उसकी जान बेजान होती है
वो भूलना बंद कर देता है .....
उसकी हार या फिर खुद की जीत पर
घर का हर कोना गुनगुनाये
दाल नहीं गली बराबर
लौट के बुद्धू घर को आये ......
कैसी जीत या कैसी ये हार है ?
मेरी समझ में ये हमेशा
घाटे का व्यापार है .....
बाहर जाने के लिए
दिमाग से सौ तरकीब भिड़ाते हैं ..
पर ...आखिर में .. बुद्धू ही कहलाते हैं .....